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16 Oct 2017

इस साल क्यों है ABVP का बुरा हाल?


एक तरफ जहां बीजेपी गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी है, वहीं सोमवार को पंजाब की गुरदासपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने उसे बड़ा झटका दिया. बीजेपी सांसद विनोद खन्ना की मौत के बाद खाली हुई इस सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार सुनील जाखड़ ने जीत दर्ज की. वहीं इससे पहले शनिवार देर रात पूरब की ऑक्सफोर्ड कही जाने वाली इलाहाबाद सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी छात्रसंघ चुनाव के नतीजे भी बीजेपी को झटका देने वाले ही रहे. जबकि इस साल देश की दूसरी बड़ी यूनिवर्सिटी में हुए छात्रसंघ चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो वो भी एबीवीपी के कमजोर होते ग्राफ की गवाही देते हैं.
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में इस बाद बीजेपी समर्थित छात्र संगठन एबीवीपी को बड़ी झटका लगा और समाजवादी पार्टी के छात्र संगठन समाजवादी छात्र सभा ने जोरदार जीत हासिल की. सपा छात्र सभी ने पांच में से चार सीटों पर अपना कब्जा जमा लिया. जबकि एबीवीपी के खाते में सिर्फ महासचिव की सीट गई.
इन नतीजों को एबीवीपी के लिए बड़ा झटका इसलिए माना जा रहा है क्योंकि पिछले दो सालों से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एबीवीपी का कब्जा रहा था. साल 2015 में एबीवीपी ने पांच में से चार सीटें हासिल की थीं, जबकि 2016 में अध्यक्ष और संयुक्त सचिव पद पर एबीवीपी के उम्मीदवार जीते थे.
इस साल ABVP का बुरा हाल
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पहले दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी, दिल्ली यूनिवर्सिटी, जयपुर यूनिवर्सिटी, गंगटोक यूनिवर्सिटी, गढ़वाल सेंट्रल यूनिवर्सिटी और पंजाब यूनिवर्सिटी में भी एबीवीपी को हार का सामना करना पड़ा है.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में 2017 के छात्रसंघ चुनाव में भी एबीवीपी को करारी हार का सामना करना पड़ा. जबकि कांग्रेस की स्टूडेंट इकाई NSUI को यहां बड़ी कामयाबी मिली. NSUI ने अध्यक्ष पद और उपाध्यक्ष पद जीत दर्ज कर जबरदस्त वापसी की. जबकि ABVP के खाते में ज्वाइंट सेकेट्ररी और सेकेट्ररी पद ही गया. डूसू के नतीजे एबीवीपी के लिए इसलिए हानिकारक माने गए क्योंकि यहां पिछले 4 साल से अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर उसका कब्जा था.
2015 का जेएनयू छात्रसंघ काफी चर्चित रहा. क्योंकि इस दौरान कन्हैया कुमार अध्यक्ष थे और शहला राशिद उपाध्यक्ष. दोनों ही लेफ्ट संगठनों से जुड़े छात्रनेता हैं. जबकि इसी छात्रसंघ में एबीवीपी के सौरभ शर्मा ज्वाइंट सेक्रेटरी बने. ये पूरा साल जेएनयू के लिए विवादों भरा रहा. फरवरी की घटना के बाद 2016 का चुनाव लेफ्ट संगठनों ने मिलकर लड़ा और एबीवीपी का सफाया कर दिया. लेफ्ट छात्र नेताओं ने 2017 के चुनाव में भी वही स्ट्रेटेजी अपनाई और एक बार फिर सेंट्रल पैनल की चारों सीटों पर लाल परचम लहराया. यानी एबीवीपी को एक भी सीट हाथ नहीं लगी.
एबीवीपी का गढ़ समझी जाने वाली राजस्थान युनिवर्सिटी में भी इस बार अध्यक्ष पद पर बीजेपी उम्मीदवार को शिकस्त देखनी पड़ी. अध्यक्ष पद पर एबीवीपी से बागी हुए पवन यादव को जीत मिली थी और 2656 वोटों से एबीवीपी प्रत्याशी को हराया था.
हैदराबाद यूनिवर्सिटी में भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को हार का सामना करना पड़ा. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) और अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन (एएसए) के गठबंधन वाली 'एलायंस फॉर सोशल जस्टिस' (एएसजे) ने सभी पदों पर जीत दर्ज की.
देश की तमाम बड़ी यूनिवर्सिटी में एबीवीपी को ये हार ऐसे वक्त में मिली जब बीजेपी ने यूपी में प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई. साथ ही उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में जैसे छोटे राज्यों में भी सत्ता पर काबिज हुई. एक तरफ जहां 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी की विशाल जीत के बाद देश के 15 से ज्यादा राज्यों में बीजेपी अपना परचम लहरा चुकी है, वहीं अब मोदी सरकार के तीन साल होने पर भी यूनिवर्सिटी के युवाओं का एबीवीपी से मोहभंग होना राहुल गांधी और विपक्ष के आरोपों को बल देता है.

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